रोना का कहर टूट पड़ा है। विश्वभर में लाखों लोग इससे पीड़ित हैं। हजारों की जान जा चुकी है। अमेरिका, इटली, ईरान जैसे देश इससे कराह रहे हैं। कहा जाता है कि इटली की स्वास्थ्य सेवाएं विश्व में दूसरे नम्बर पर आती हैं, मगर वहां चीन के मुकाबले ज्यादा नुकसान हुआ है। यहां तक कि इलाज में लगे डाक्टर भी जान गंवा रहे हैं। हमारी पीढ़ी जो साठ के पार है उसने प्लेग जैसी महामारियों के बारे में सुना भर था। या उस समय के लेखकों की रचनाओं से जाना था। मगर आज की पीढी ने तो शायद ऐसी महामारियों के बारे में सुना भी न हो। लेकिन हमारी पीढ़ी और नई पीढ़ी कोरोना की महामारी से एक साथ थरथरा रहे हैं। जिस विश्व के एक ग्राम बनने और दूरियां मिटने पर हम इतराते थे, आज पता चल रहा है कि एक देश से दूसरे देश तक पहंचने की स्पीड जिस ताकत से बढ़ी है, रोग भी उसी ताकत से एक जगह से दूसरी जगह तक फैल रहा है। ट्रैफिक पुलिस का नारा आंखों के सामने घूम रहा है-स्पीड थ्रिल्स बट किल्स। बहुत पहले महात्मा गांधी ने रेल का विरोध किया था। कहा था कि रेल एक जगह की बीमारी दुसरी जगह ले जाएगी। आज उनकी यह बात कितनी सही साबित हो रही है। न केवल रेल, बसें, आवागमन के अन्य साधन और विशेषकर फर-फर करती एयरलाइन कोरोना को एक जगह से दूसरी जगह ले जा रही हैं। कनिका कपूर लंदन से आती हैं और सुदूर उत्तर प्रदेश के कई शहर उनके होने भर से कोरोना की चपेट में आ जाते हैं। भारत सरकार तरह-तरह से इस विपत्ति से लड़ने की कोशिश कर रही है। जनता कयूं तक लगाया गया है। 'प्रिवेंशन इज बैटर दैन क्योर' का महत्व समझाया जा रहा है। लोगों को सुरक्षित रखने के लिए बचाव के तरहतरह के तरीके बताए जा रहे हैं। लेकिन समस्या तो यही है कि किस-किस को बाहर से आने से रोक सकते हैं और कितनी बार हाथ भी धोए जा सकते हैं। घर के काम वाले, सोसायटी के चौकीदार, दूध वाले, सफाई वाले, सब्जी वाले कोरियर वाले और तमाम तरीके से दिहाड़ी का काम करने वाले अपने- अपने कामों में लगे हैं। जिस सोशल डिस्टेंसिंग की बात की जा रही है, मध्यवर्ग, उच्च मध्यवर्ग, अमीर वे तो इसे बहुत आसानी से अपना सकते हैं। हर रोज कुआं खोदने और पानी पीने वाले वर्ग में वे नहीं आते। घर में बैठकर भी वे वर्क फाम होम करके काम चला सकते हैं। नौकरियों को बचा सकते हैं। अपने संसाधनों के भरोसे विपत्ति से निपट सकते हैं। लेकिन गरीबों और साधनहीन का क्या। अगर वे घर में रहें तो उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा। वे लोग जो दिनभर कमाते हैं और शाम को उस पैसे से दाल, चावल, आटा, मसाला, सब्जी खरीदते हैं वे अगर काम पर नहीं जाएंगे तो जीवन कैसे चलेगा। उनके पास जोड़ा-जंगोड़ा या बचत तो होती नहीं। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और केरल आदि सरकारों ने इस दिशा में प्रभावी कदम उठाए हैं। अन्य राज्यों को भी ऐसे कदम उठाने की सख्त जरूरत है, जहां साधनहीन पर कम से कम आफत आए। इसके अलावा संकट बुजुर्गों पर भी मंडरा रहा है। इटली में अब तक मरने वाले चार हजार लोगों में साठ प्रतिशत बुजुर्ग ही थे। और अफसोस है कि उनके साथ कोई नहीं था, न परिवार, न सरकार, न डाक्टर। हमारे यहां भी यह खतरा मंडरा रहा है। कहा जा रहा है कि अगर कोरोना गांवों तक जा पहंचा तो बहत मुश्किल होगी। इसलिए जरूरी यह है कि इसे फैलने से रोका जाए। सीमाओं को सील कर दिया जाए। चीन ने तो लोगों के घरों और खिड़कियों तक को बाहर से सील कर दिया था। ऐसे में यदि हमारे यहां भी लोगों के आने-जाने, इकट्ठे होने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए तो बुरा नहीं है। कठोर कदम उठाना यदि वक्त की जरूरत है तो उठाए जाने चाहिए। किसी आलोचना की परवाह नहीं करनी चाहिए। जो आलोचना करने में जुटे हैं, उन्हें किसी के लिए कुछ करना नहीं है। सरकारों के नागरिकों के प्रति जो कर्तव्य हैं, उनकी सही परीक्षा किसी आपदा के वक्त ही होती है। कोरोना की आपदा हमारे सामने मुंह फैलाए खड़ी है। सरकार को अपने नागरिकों को तो बचाना ही है, उनके भरण-पोषण की चिंता भी करनी है। पहले से ही मंदी से त्रस्त समाज की जरूरतों को भी पूरा करना है। चुनौतियां अभूतपूर्व हैं। ऐसे में नागरिकों के भी कुछ कर्तव्य हैं। कोरोना से बचाव के जो तौर-तरीके बताए जा रहे हैं, उन्हें तो अमल में लाया ही जाए। यदि किसी कारण बीमारी की चपेट में आ जाएं तो फौरन इसका इलाज कराएं, जिससे खुद भी सुरक्षित रह सके और परिवार तथा अन्य लोगों को भी बचाएं। बहुत से लोग कोरोना का मजाक उड़ा रहे हैं, ठीक है जीवन में हलके-फुलके क्षण भी आना जरूरी हैं, मगर सच्चाई यह है कि कोरोना का खतरा काल्पनिक नहीं, वास्तविक है। चूंकि अभी तक इसकी कोई दवा नहीं खोजी जा सकी है, इसलिए बचाव ही एकमात्र उपाय है। इन दिनों जिस तरह से साफ-सफाई, बार-बार हाथ धोने की बातें की जा रही हैं, वे बार-बार बचपन की तरफ ले जा रही हैं। दादी, नानियां, मां याद आ रही हैं। बाहर के जूते, चप्पल घर में न लाना, बाहर से आने पर मुंह, हाथ-पांव धोना, कुछ भी खाने से पहले हाथ धोना, बाहर बनी चीजों को कम से कम खाना आदि बातें ऐसी थीं जो हमें न केवल स्वस्थ रखती थीं. बल्कि साफ-सफाई का महत्व भी हर पल बताती थीं। इन बातों को 'बुढ़िया पुराण' कहकर उड़ा दिया गया। लेकिन अब लग रहा है कि ये बातें कितनी महत्वपूर्ण थीं। वे औरतें बेशक हम जितनी एम.ए. पीएचडी नहीं थीं मगर व्यावहारिक और जीवन के ज्ञान में हमसे बहुत आगे थीं। कोरोना की महामारी बीत भी जाए, तो भी हमें अब इन बातों को नये सिरे से जीवन में उतारना चाहिए, जिससे कि फिर कोई महामारी जीवन को न छीन सके ।